बाबा धरनीदासजी एक उच्च कोटि के महात्मा हो गये हैं। इनका आविर्भाव र्इसाकी सत्रहवीं शताब्दी में हुआ था और इनका निवास स्थान सबा बिहार के सारन जिले का माँझी नामक गाँव था, जो बलिया जिले के पूरब घाघरा नदी के उत्तरी किनारे पर अब भी वर्तमान है। इनकी मुख्य-मुख्य गधियाँ सूबा बिहार और संयुक्त प्रदेश के अनेक स्थानों में आज भी प्रतिष्ठित हैं और इनकी शिष्यपरम्परा में कर्इ विख्यात संत और सत्य पुरूष हो चुके हैं जिनके नाम बड़ी श्रद्धा और प्रतिष्ठा के साथ लिये जाते हैं। इनकी उपलब्ध रचनाओं में से ‘प्रेमप्रगास’ एवं ‘शब्दप्रकाश’ नामक दो ग्रन्थों को मैंने हस्त लिखित रूप में देखा है और इनकी फुटकर बानियों का एक संग्रह प्रयाग की ‘संतबानी-पुस्तकमाला’ में ‘धरनीदासजी की बानी’ नाम से प्रकाशित हुआ है। तो भी इनके जन्म वा मरण के निश्चित समय का पता नहीं चलता और न इनके जीवन की विविध घटनाओं का ही कोर्इ प्रमाणिक विवरण मिलता है। उपर्युक्त प्रथम दो पुस्तकों से तथा कुछ स्वतंत्र खोज करने से जो सामग्री प्राप्त हुर्इ है उसके आधार पर इस विषय में संक्षिप्त चर्चा की जाती है।
बाबा धरनीदासजी के समय में माँझी गाँव तथा उसके आसपास भूमिखण्ड ‘मध्येम’ अथवा ‘मध्यदीप’ करके प्रसिद्ध था। ‘मध्यदीप’ के पूरबकी ओर हरिहरक्षेत्र और पश्चिम दिशा में दर्दरक्षेत्र नामक पुण्यक्षेत्र थे और अपने निकटवर्ती ब्रह्मपुर के कारण यह स्वयं भी कभी-कभी ब्रह्मक्षेत्र कहलाता था। माँझी गाँव एक समृद्धिशाली नगर था, जहाँ नवाब जमींदारों के महल थे; चारों ओर वापी, कूप, तड़ाग, उद्यान और पुष्पवाटिकाएँ थीं; बीच-बीच में सुन्दर हाट लगते थे और यत्र-यत्र देवस्थान आदिका भी बाहुल्य था, जहाँ निरन्तर हरिचर्चा हुआ करती थी। इसी माँझी के निवासी श्रीवास्तव कायस्थों एक वैष्णव कुल में बाबा धरनीदासजी का जन्म हुआ था। इनके दादा टिकैददास एक धार्मिक व्यक्ति थे और इनके पिता परसरामदास भी एक बड़े यश से और प्रभावशाली पुरूष थे। कहा जाता है कि टिकैतदास अथवा उस समय के टिकैतराय मुसलमानों के आक्रमणों से भयभीत होकर प्रयाग की ओर से इधर आये थे। यहाँ परसरामदास को अपनी स्त्री विरमादेवी से लछिराम, छत्रपति, बेनी और कुलमनि नामक पाँच पुत्र हुए, जिनमें धरनी वा धरनीदास कदाचित् सबसे बड़े थे। इन पाँचों में से धरनी को छोड़कर शेष चार की वंशपरम्परा ‘धरनीश्वरी’ नाम से अब भी चल रही है। धरनी की केवल एक पुत्री की सन्तानों का ही अस्तित्व बतलाया जाता है। ‘शब्दप्रकाश’ के अनुसार बालक धरनी के जन्मुहूर्तादि पर विचार करके अन्य अनेक बातों के अतिरिक्त पण्डितों ने यह भी बतलाया था कि ‘यह भविष्य में दीर्घायु एवं भक्त होगा।’ इनके बाल्यजीवन, शिक्षा, गृहस्थी आदि के विषय में प्राय: कुछ भी पता नहीं चलता।
जो हो, इनकी रचनाओं में से इतना अवश्य जान पड़ता है कि संवत् 1713 के आषाढ़ मास में शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को बुधवार के दिन इनके पिता परसरादास का देहान्त हो गया और इस घटना के इनके परिवार तथा माँझी नगर तक को बहुत कुछ श्रीहत कर दिया। कहा जाता है कि उस समय बाबा स्थानीय नवाब जमींदारों के यहाँ दीवान के पदपर नियुक्त थे। पितृनिधन के शोक से इनका हृदय सहसा क्षुब्ध हो उठा और ये अब सदा अपने कार्य से उदासीन और खिन्न रहने लगे। फिर तो इनके पूर्व संस्कार एवं धार्मिक परिवार सम्बन्धी विविध परिस्थितियों ने भी इनकी विरक्ति और अन्य आध्यात्मिक भावानाओं के क्रमश: और भी दृढ़ होते जाने मे सहायता पहुँचायी और ये भगवद् चिन्तन में लीन रहने के अभ्यासी भी हो गये। इनकी मनोवृत्ति इस समय इतनी तीव्र हो गयी थी कि एक दिन बैठे-बैठे जमींदारी के काग़जात देखते वक्त इन्होंने उनपर अचानक हुक्के वा लोटे का पानी उडेल दिया, जिससे सभी बही-खाते भीग गये और अपने अप्रसन्न मालिकों के आग्रह करने पर बतलाया कि सुदूर पुरीधाम में आरती के समय जगन्नाथजी के कपड़ों में आग लग गयी थी जिसे बुझाने के प्रयत्न में मैंने ऐसा किया था। पीछे जब दो आदमियों को भेजकर इसकी जाँच करायी गयी तो पता चला कि वास्तव में वहाँ पर उक्त प्रकार की घटना घटी थी और बाबा धरनीदास की ही आकृति के एक पुरूष ने जाकर उसे बुझाया था। तब से ये नौकरी छोड़कर घर पर ही साधुवेष में रहने लगे और उपर्युक्त बातों की सुध आने पर कभी-कभी बोल उठते थे कि-
अब मोहि राम-नाम-सुधि आर्इ। लिखनी ना करौं रे भार्इ।।
परन्तु इनके हृदय में अभी अविचल शान्ति नहीं आयी थी और आत्मतृप्ति के लिये ये सदा किसी पहुँचे हुए गुरुदेव की खोज में रहते थे। आरम्भिक जीवन में इन्होंने किसी चन्द्रदास से मन्त्र लिखा था और भेष बदलते समय किसी साधु सेवानन्द को भी दीक्षागुरु बनाया था, किन्तु इकना चित्त किसी ऐसे महात्मा के लिय व्यग्र था जो इन्हें परमतत्त्व का पूर्ण ज्ञान करा दे। सुनते है कि ऐसे ही अवसर पर इन्हें किसी से जान पड़ा कि पातेपुर (वर्तमान जिला मुजफ्फरपुर) में स्वामी विनोदानन्दजी रहते है। अत एवं उनके शिष्य होने के र्इच्छा से वहाँ गये और परीक्षा लेने के विचार से उनकी चौकी के एक पाये में सर्प बनकल लिपट गये। स्वामी जी उस समय नित्य की भाँति उसी चौकी पर बैठक कथा कर रहे थे। कथा समाप्त कर उन्होंने चौके में रसोइयेसे एक अतिथि के लिये भी पारस लगाने का आदेश किया और बोले ‘आओ भार्इ भोजन करो।’ चौकी में क्यों लिपटे हुए हो। ‘बाबा धरनीदास यह सुनते ही प्रत्यक्ष होकर उनके चरणों पर गिर पड़े और शरणापन्न हो गये। इस प्रकार की कथा इनकी रचनाओं में नहीं मिलती, किन्तु गुरूदेव विनोदानन्द का उल्लेख इन्होंने सबसे बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ किया है और बतलाया है कि उन्हीं की कृपा से मानो मैं सोते से जग गया और सिर पर उनका हाथ पड़ते ही सब कुछ मेरे प्रत्यक्ष अनुभव में आ गया। बाबा धरनीदासजी ने दो पद्यों में अपनी गुरुप्रणाली की भी चर्चा की है। एक के द्वारा इन्होंने प्रसिद्ध स्वामी रामानन्द से लेकर क्रमश: वेलानन्द, शून्यानन्द, चेतनान्द, विहारीदास, रामदास और विनोदानन्द तक के नाम लिये हैं और दूसरे में आदिगुरु नारायण से लेकर रामानन्द जी के गुरु राघवानन्द तक का भी उल्लेख किया है। स्वामी विनोदानन्द के इहलोक त्याग का समय इन्होंने संवत् 1731 ज्ञावण कृष्ण नवमी और भृगुवार दिया है।
बाबा धरनीदास जी का नित्यनियम उक्त ब्रह्मपुर के निकट गंगास्नान, भगवद्रजन एवं उपदेशदान था। इनका सादा जीवन प्राय: इसी प्रकार वृद्धावस्था तक चलता रहा। अन्त में एक दिन अपने शिष्यों के साथ ये गंगा-घाघरा के संगम पर गये और अपने पूर्व कथनानुसार वहीं जल पर एक चादर बिछाकर बैठ गये। कुछ समय तक तो इन्हें सबने पूरब की ओर उसी प्रकार बहते जाते देखा, किन्तु दूर चले जाने पर एक ज्वालामात्र दिखलायी पड़ी और फिर वह भी क्षितिज में लीन हो गयी। बाबा की समाधि लोगों ने माँझी गाँव के ही एक भाग में बना दी है, वहाँ इनकी एक गधी भी प्रतिष्ठित है। इनकी कुल गद्दियों की संख्या साढ़े बारह बतलायी जाती है और ये भिन्न-भिन्न स्थानों में हैं। इनकी रचनाओं में संत-मत की प्राय: सभी बातों का समावेश है। ये परमतत्त्व को ‘करताराम’ कहते हैं। और अपने इष्टदेव बालगोपाल वा ‘धरनीश्वरी’ को उसी का प्रतीक मानते हुए-से जान पड़ते हैं। इन्हें अपने गुरुदेव के प्रति अपार श्रद्धा है और संत-साधुओं की महिमा गाने से कभी नहीं अघाते । प्रेम को ये बहुत महत्त्व देते हैं और साथ ही योगी संतों की परम्परा के अनुसार काया के भीतरी रहस्यों का भी वर्णन करते हैं। इनका सामाजिक सुधार के प्रति भी कुछ झुकाव है और ये सब प्रकार से संतसम्प्रदाय के अन्तर्गत आते है। परन्तु उक्त बातों के अतिरिक्त इनका विश्वास तुलसी की माला एवं रामानन्दी छापों में भी बहुत जान पड़ता है और यह कदाचित् रामावतसम्प्रदाय के सम्बन्ध का परिणाम है। बाबा के अनेक पद्य बड़े ही सरस, प्रसाद् पूर्ण एवं प्रवाह विशष्ट हैं और इनकी भाषा भी ललित है।