Sant Mat आज ही
संतमत सदस्य की सूचि
में शामिल हो
होम हमारे बारे में संपर्क करे
 

हजरत मुहम्मद साहब

पीडीएफ डाउनलोड करे


-डॉ. श्याम कुमार
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब का जन्म 20 अपै्रल 530 र्इ. को अरब की राजधानी मक्का नगरी में हुआ था। ये कुरैश वंशी थे। इनके पिता का नाम अब्दुल्ला तथा माता का आम्ना था। इनके मामा एक बड़े ज्योतिषी थे। उन्होंने इनकी जन्म कुण्डली देखकर कहा था कि यह बालक शक्तिशाली होगा। यह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना एवं एक नवीन धर्म की सृष्टि करेगा।

इनके जन्म के पूर्व ही इनके पिता परलोकवासी हो गए। माता को दूध न होने के कारण कुछ वर्षों तक इनका पालन एक गड़ेरिए की स्त्री ने किया। कहा जाता है कि ये सात महीने में दौड़ने लगे थे और आठ महीने के बाद स्पष्ट बोलने लगे थे। छ: वर्ष की अवस्था में इनकी माता इन्हे अपने साथ एक कुटुम्ब के यहाँ मदीना ले गर्इ । वहाँ से लौटते समय इनकी माता का देहान्त हो गया। फिर इनके दादा और चाचा ने इनका पालन-पोषण किया। दोनों ही काबा के अध्यक्ष थे। अत: इन्हें बचपन से ही धार्मिक संस्कार मिलने लगे। ये छोटी उम्र से ही पशुओं को चराया करते थे। पर खेल-तमाशे और उत्सवों की भीड़ से दूर ही रहते।
जब ये बारह वर्ष के हुए, तो चाचा के साथ सीरिया जाते समय एक र्इसार्इ पादरी से इनकी बातचीत हुर्इ। पादरी इनकी धार्मिक जिज्ञासाओं से बड़ा प्रभावित हुआ। आगे चलकर ये विदेश जानेवाले काफिलों में ऊँटवान का काम करने लगे। इनकी सच्चार्इ और कार्य-कुशलता से प्रभावित होकर मक्का की एक अमीर वेवा खादिजा ने इन्हें अपने यहाँ काम दिया। कुछ वर्षों बाद उसी के साथ इनका विवाह हुआ।

ये हमेशा बुरार्इयों से दूर रहा करते। इनका आचरण पवित्र और व्यवहार मधुर था। इनके उत्तम चरित्र को देखकर लोग इन्हें ‘अलआमीन’ (र्इमानदार और विश्वासी) कहने लगे। इनकी सच्चार्इ के कारण लोग अपने झगड़ों का इन्हीं से निबटारा करवाते।

मक्का के रर्इसों में गिने-जाने के कारण इन्हें धन कमाने की आवश्यकता तो थी नही, अत: ये धार्मिक प्रसंगों में अधिक रूचि लेने लग गए। धीरे-धीरे ये अपना अधिकांश समय अल्लाह के चिन्तन में बिताने लगे। सत्तु और पानी साथ लेकर मक्का के नजदीक हीरामन की पहाड़ी गुफा में चले जाते और उसमें कर्इ-कर्इ दिनों तक अल्लाह की इबादत किया करते ।

मौलाना शेख मुहम्मद अकरम सावरी ने लिखा है कि मुहम्मद साहब वर्षों तक गारेहुरा (एक गुफा) में अवाजे मुस्तकीम (सीधी और पक्की अवाज) की साधना करते रहे थे। भारतीय संतों की परम्परा में इसे ही सुरत-शब्द-योग कहा गया है। इस साधना के फलस्वरूप इन्हें दिन में कर्इ बार दिव्य स्वप्न होते और इनकी सामाधि लग जाती।

जब इनकी अवस्था चालीस वर्ष की हुर्इ तो एक दिन इन्हें र्इश्वर की कृपा से देवदूत जीब्राइल के दर्शन हुए। उस दिव्य मूर्ति ने इनसे कहा- ‘मुहम्मद! तुम आज से पैगम्बर हो गए। मैं भगवान का दूत जीब्राइल हूँ। उस दिन से इनके ऊपर कुरान की आयतें उतरने लगीं। इन्होंने घोषणा की कि अल्लाह ने मुझे मानव जाति के लिए अपना रसूल (दूत) बनाया है। जब ये अपने अनुभवों की चर्चा लोगों से करते तो बहुत से पारम्परिक रूढ़िवादी लोगों को इनकी बाते व्यर्थ लगतीं। पर धार्मिक पुनर्जागरर्ण के इच्छूक बहुत-से लोगों से इन्हें समर्थन मिलने लगा। उस समय वहाँ धर्म के नाम पर तात्कालिक समाज में सारे, भूत्त-प्रैत, पत्थर और मूर्तियों की पूजा और बली-प्रथा ही प्रचलित थी। इनके जनसमर्थन को देखकर इनसे जलनेवाले लोगों ने इन्हें जान से मारने का “षड्यंत्र रचा। फलत: 53 वर्ष की अवस्था में इन्हें मक्का छोड़कर मदीना जाना पड़ा। वहीं से इन्होंने इस्लाम धर्म का व्यवस्थित प्रचार शुरू किया।

इनका कहना था कि मैं किसी नए धर्म की स्थापना नहीं कर रहा हूँ, किन्तु प्राचीन धर्म की ही पुन: स्थापना कर रहा हुँ। इनका मूल-मंत्र था-’लाइलाहे इल्लिल्लाह’ अर्थात एक र्इश्वर के सिवा दूसरा पूजनीय नहीं है।

सत् धर्म का प्रचार करते हुए इन्होंने 63 वर्ष की अवस्था में परलोक गमन किया।

उपदेश-
1- दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम दूसरों से करवाना चाहत हो।
2- आफत के मारे व्यक्ति की मदद करो, भले ही वह मुसलमान हो या गैर मुसलमान।
3- भूखे को भोजन दो, रोगी को शुश्रुषा करो और बंधन में पड़े हुए को मुक्त करो। किसी भी मनुष्य के प्रति घुणा न करो।
4- जो सत्य से हटे हुए हैं, वे नरक का र्इंधन बनने वाले है।
5- तुम पर जो भी आफर आती है, उसका कारण वह है, जो तुम्हारे हाथों हुआ है।
विश्व-स्तरीय संतमत सत्संग समिति (रजि.)