शांति-अहिंसा एवं करूणा के मूर्ति हजरत र्इसा का जन्म दिसम्बर माह की 25 तारीख को बेथेलेहम नगर में माता मरियम और पिता जोसफ के यहाँ हुआ था। आप दया की प्रतिमूर्ति एवं करूणा के भण्डार थे। 30 वर्ष की अवस्था में आप अपने महान गुरू संत जोन वाप्टिस्ट से दीक्षा प्राप्त कर जोर्डन की गुफाओं में ध्यान करने चले गये। प्रभू यीशु 40 दिनों तक उपवास रहते हुए परमात्म भजन में अडिग होकर लगे रहे। अंत में परमात्म साक्षात कर लोगों के बीच धर्म का उपदेश देने के लिए समाज के बीच आये।
प्रभु यीशु समाज में फैले पाखण्ड, कटुता, जातीयता, के विरूद्ध आवाज उठाते हुये कहा-पीड़ितों को एवं पतितों को गले लगाओ। एक बार प्रभु यीशु कैथरीन नामक वीरांगना के यहाँ उनके प्रेम-भाव को देखकर रूक गये। तब वह भाव-विह्ल होकर कहने लगी-
‘‘भगवान! आज शुभागमन न होता, तो न जाने हम सब कब तक इस गंदे जीवन को जीते और समाज को गंदा बनाते रहते। संभव था कि यह सम्पूर्ण जिन्दगी ही इसमें खप जाती, किन्तु धन्य हैं आप जो हम सब का उद्धार कर दिया, समय रहते आँखों पर बँधी पट्टी उतार दी और सही वक्त पर सही मार्ग-दर्शन किया, परन्तु हमारी एक उत्कट
अभिलाषा है देव्’’ इतना कहकर वह उनके चरणों में गिर पड़ी और फूट-फूट कर रोने लगी। भगवान् र्इसा ने उसे उठाया और आश्वासन के स्वर में कहा-
‘‘तुम्हारी इच्छा यदि पूरी करने लायक हुर्इ, तो हम अवश्य पूर्ण करेंगे। कहो, नि:संकोच होकर कहो।’’
‘‘अत्यन्त छोटी आकांक्षा है प्रभु! ‘‘कैथरीन का प्रकम्पित स्वर उभरा ‘‘वह कदाचित् आपकी सामथ्र्य से परे भी नहीं है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि कल आप सब मेरे यहाँ पधारकर भोजन ग्रहण करें, तो मैं इस क्षुद्र जिन्दगी की किसी हद तक मान सकूँगी।’’
‘‘बस, इतनी सी-बात।’’ प्रभु तनिक मुस्कराये और वे अपने शिष्यों के साथ चल पडे़ किन्तु इस घटना के उपरान्त पीछे चल रही शिष्य मण्डली में कुछ कानाफूसी होने लगी, जिसकी कुछ अस्फुट ध्वनि र्इसा के कानों से भी टकरार्इ। उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य सिमोन से पूछा-’’बात क्या है? किस प्रसंग की चर्चा चल रही है?’’
मुखर सिमोन से न रहा गया। उसने कहा-’’ इन घृणित नारियों को आपने दिशा-निर्देश दिया, क्या इतना कम था, जो निमंत्रण भी स्वीकार कर लिया? इससे हमारी छवि धुमिल होगी। लोग हम पर अँगुली उठायेंगे।’’
‘‘सिमोन्! एक बात का सदा ध्यान रखना’’ प्रभु की गम्भीर वाणी उभरी-’’बुरा कार्य निश्चत ही निन्दनीय है, उससे व्यक्ति को बचना चाहिए, किन्तु जिस कार्य से ओरों का भला होता हो, उसमें पीछे भी नहीं रहना चाहिए। समाज चाहे कुछ भी कहता रहे, ऐसी भ्रान्ति देर तक टिकती नहीं। ग्रहण तो सूर्य पर भी लग जाता है, पर उसकी प्रखरता के आगे वह देर तक अपना अस्तित्व कहाँ कायम रख पाता है। यह नारियाँ समाज की कोढ़ हैं। सबसे पहले इन्हीं का उपचार करना होगा और तुम भी स्वयं एक अच्छे चिकित्सक हो। एक बात बता सकोगे ?’’
र्इसा की प्रश्नवाचक दृष्टि सिमोन पर ठहर गयी। ‘‘दो रोगियों में एक सर्दी-जुकाम का सामान्य और दूसरा जानलेवा गंभीर व्याधि से आक्रान्त हो, तो इनमें से प्राथमिकता किसे दोगे?’’
‘‘गंभीर रोगो को।’’ सिमोन का स्वर था।
‘‘यह भी ऐसी ही मरीज है, अत: इलाज प्रथम इनका ही होना चाहिए।’’ - र्इसा की दृढ़ वाणी थी। सिमोन निरूत्तर हो गया।
दूसरे दिन र्इसा अपने शिष्यों सहित कैथरीन के घर पहुँचे और भोजन किया। कैथरीन ने जब यह प्रसंग सुना, तो यह सन्त की सहृदयता से गद्गद् हो उठी। उसी क्षण र्इसा का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया जिसने भी यह घटना सुनी, सन्त की महानता के प्रति उसका मन सहज श्रद्धा से भर उठा। हेम्पशायर, इंगलैण्ड का यह मुहल्ला आज भी उक्त घटना के लिए प्रसिद्ध है।
पापियों का हित
महात्मा र्इसा अपनी दयालुता के कारण सदा दु:खी और पापी कहे जाने वाले अपराधियों से हर समय घिरे रहते थे। यहाँ तक कि जब वे भोजन किया करते थे, तब भी बहुत - से पतित लोग उन्हें घेरे रहते थे।
एक बार वे बहुत - से नीच जाति-पाति ओर पतितों के साथ बैठे भोजन कर रहे थे। यह देखकर उनके एक विरोधी ने उनके शिष्य से कहा-’’तेरे गुरू! जिसे तुम लोग भगवान् का बेटा और पवित्र आत्मा बतलाते हो, इस प्रकार नीचों और पतितों से प्रेम करता है उनके साथ बैठा भोजन कर रहा है फिर भला तुम लोग किस प्रकार आशा कर सकते हो कि हम लोग उसका आदर और उसकी बात मानें?’’
महात्मा र्इसा ने विरोधी की बात सुनली और विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-’’भार्इ वैद्य की आवश्यकता रोगियों को होती है, निरोगों को नहीं। धर्म की आवश्यकता पापियों और पतितों को होती है, उनको नहीं जो पहले से ही अपने को धार्मिक समझते हैं। मैं धर्मात्माओं का नहीं पापियों का हित करना चाहता हूँ। उन्हें मेरी बहुत जरूरत है।’’
प्रभु यीशु के ज्ञान एवं सदुपदेश से धर्म के ठीकेदार, पुरोहित तिलमिला उठे और राजा के कान भरकर बिना दोष के ही प्रभु को प्राण दण्ड दे दिया। संतों की ऐसी महानता है कि प्राण दण्ड देने वाले को भी प्रभु से उनके दोषों के लिए क्षमा ही माँगा। उनके दोषों को माफ करने की प्रार्थना की।