भारत के महान संतों की परम्परा में अठारहवीं सदी मे संत चरणदास जी प्रकट हुए, धर्म राजनीति सदाचार आदि अनेक दृष्टियों से यह पतन का समय था। राजनीतिक दृष्टिकोण से औरंगजेब की मृत्यु के बाद ही मुगल शासन की शक्ति और वैभव का सूर्य अस्त होने लगा था।
इस महापुरूष का जन्म संवत 1760 भादो शुक्ल तृतीया मंगलवार के दिन, गाँव डेहरा में, पिता मुरलीधर के घर माता कुंजी देवी की सुलक्षणी कोख से ढूसर कुल में हुआ था। डेहरा नामक ग्राम राजस्थान के अलवर जिला में है अपने स्वयं लिखा है-
‘‘डेहरे में मेरा जनम नाम रणजीत पिछानो।।
मुरली को सुत जान जात ढूसर पहिचानो।।
ढूसरे शब्द भार्गव जाति के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ये लोग पहले ढूसी रेवाडी के निवासी थे, और बाद में डेहरा आदि स्थानों पर जाकर बस गये थे, पर कहलाते ढूसर ही थे।
कुछ विद्वानों ने ढूसर या भार्गव के स्थान पर बनिया शब्द का प्रयोग किया है, जिसका वास्तविक संकेत व्यापारी वर्ग की ओर है।
विद्वानों ने आपके परिवार की आठ पीढ़ियों की वंशावली इस प्रकार दी है- चरनदास के पिता मुरलीधर, मुरलीधर के पिता-प्रागदास, प्रागदास के पिता-जगनदास, जगनदास के पिता-लाहड़दास, लाहड़दास के पिता-गिरिधर दास, गिरिधर के पिता-चतुरदास, तथा चतुरदास के पिता-शोभनदास की तपस्या पर प्रसन्न होकर भगवान ने वरदान दिया था जो इस प्रकार है :-
भवन तिहारे मैं ही आऊँ। कलियुग माहीं भक्ति चलाऊँ।।
तो कुल माही भक्ति चलेगी। आठवीं पीढ़ी जाय फलेगी।।
आप के दादा का नाम-प्रागदास और दादी का नाम यशोदा थी दादा-दादी और माता पिता ने आपका नाम रणजीत रखा। आपने अपनी वाणी में अपने आप को रणजीता कहा है। दीक्षा देते हुए आपके सतगुरु ने आपका नाम श्यामचरण दास रख दिया। समकालीन लेखकों के अनुसार पाँच वर्ष की आयु से ही आपकी रसना पर ‘‘राम नाम’’ का जाप चढ़ा कहा जाता है कि पाँच साल की उम्र में एक दिन जब आप ‘‘राम-नाम’’ के कीर्तन में मस्त थे, तो आपको एक बैरागी तपस्वी से भेंट हुर्इ। उस बैरागी ने आपको आम वृक्ष के नीचे अपनी गोद में लेकर प्यार और पेड़ा देते हुए कहा:-
कृपा प्यार बहुते ही किये, पुचकारे दो पेडे़ दिये
बहुरि कही तोहि सिषहम किन्हा, हूज्यों संत यही वर दीन्हा
भव सागर को खेवट हवै है, वहु जग जीवन पार लंघौ है
आपके पिता जी भी भक्ति में इतना तल्लीन रहते थे कि जंगल में जंगली जानवरो से रक्षा करने हेतु अंग रक्षक रखा गया था, जो सायंकाल सही सलामत घर ले आता था। एक दिन पिता जी जंगल के एकान्त में साधना कर रहे थे। थोड़ी दूर बैठे अंग रक्षक को नींद आ गर्इ। इसी बीच पिताजी अचानक लोप हो गये और किसी को कुछ पता न चला। पिता जी का लोप हो जाना घर पर छाये हुए संकट के बादलों का अन्त नहीं-आरम्भ था। तीन महीने के बाद आप के दादा- दादी का भी निधन हो गया। अब आपकी माँ बेसहारा हो गर्इ। उसके सामने अँधेरा ही अँधेरा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। अन्त में उसने अपना मायके दिल्ली जाने का निश्चय कर लिया।
आपके नाना भिखारीदास दिल्ली राज दरबार के अधिकारी थे वे चाहते थे कि आपको अरबी और फारसी पढ़ावे। तत्कालीन रीति के अनुसार छठे वर्ष में आपको पाठशाला भेजा गया। मौलवी अध्यापक ने आपकी पढ़ार्इ में रूचि उत्पन्न करने के लिए अनेक प्रयत्न किये पर कोर्इ लाभ न हुआ। प्रेम प्यार से काम न चला तो मौलवी ने डाँट-डपट की, पर व्यर्थ साबित हुआ । इस क्रम में आपने अध्यापक को निर्देशित करते हुए कहा।
आल जाल तु क्या पढ़ावे, कृष्ण नाम लिख क्यों न सिखावे।।
जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओं, तो मोकु तुम फेर बुलाओ।।
चूके मौलवी ने नाना के कथनानुसार एवं अपनी वेवशी की वजह से उर्दू ही पढ़ाया पर आपने उर्दू को आलतु फालतु पढ़ार्इ कहा तथा कृष्णा या हरि की भक्ति पढ़ाने को कहा। यदि हरि भक्ति से सम्बन्धित पढ़ार्इ होगी तो मैं आपको पुन: बुलाऊँगा। मौलवी लाचार होकर आठ महीना आपको पढ़ाया पर कोर्इ प्रभाव नहीं पड़ा तथा गुस्साकर आपने कहा:-
हमें आज से पढ़ना नाँही, जिकर ने होय फिकर के मांही
सुनि मुल्ला हैरत में आया, इस लड़के पर रब की छाया
आपका उपरोक्त भाव जानकर मौलवी आश्चर्य में आया कि इतना कम उम्र का बालक अध्यात्म की बात करता है। निश्चय इस लड़का पर र्इश्वर की कृपा है। पुन: आपको नाना-नानी का उपकार सताने लगा कि नहीं पढ़ने पर दोनों दु:खी हो जायेंगे। इस भाव को आपने इस प्रकार प्रकट किया:-
सोचि-सोचि मन माँही ठानी, दु:खी होयेंगे नाना-नानी।।
कैसे मिठू उनका कीया, ताते पढ़ने में मनदीया।।
उपरोक्त पंक्ति से स्पष्ट होता है कि आप नाना-नानी के प्रति कृतज्ञ थे, पर अन्दर में सतगुरु के मिलाप की लगन जाग उठी ‘सतगुरु के विरह की पीड़ा इस प्रकार सताने लगी कि आप पल-पल क्षण-क्षण व्याकुल रहने लगे। आप सतगुरु की खोज में दूर-दूर तक चले जाते कभी नागाओ और उदासियों के पास तो कभी सिद्धो, योगियों और सन्यासियों के पास। आप महीनों जंगलों में भटकते रहे पर कहीं भी ऐसा सतगुरु दिखार्इ नहीं दिया, जो तप्त हृदय को ठण्डक पहुँचा सके। उस विरह की अवस्था का भाव आपने इस रूप में प्रकट किया है:-
ऐसी विरह अग्नि तन लागी, गर्इ भूख और निद्रा भागी
सतगुरु कूँ ढूंढन ही लागे, ढूंढे सब मत पंथ उदासी
यह बात सत्य है कि शिष्य गुरु को नहीं खोजता परन्तु गुरु शिष्य को खोजता है। जब शिष्य तैयार हो जाता है तो गुरु स्वयं प्रकट हो जाता है उन्नीस वर्ष की आयु में गुरु की खोज में भटकता, विरह में व्याकुल आप एक दिन मोरनातीसा नामक स्थान उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में प्रसिद्ध है, जहाँ वेदव्यास के पुत्र सुकदेव ने द्वापर युग में यहाँ गंगा के किनारे राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत का उपदेश सुनाया था। इस स्थान के इर्द गिर्द आपको तपस्वी के दर्शन हुए, जिसे देखते ही आपके मन में प्रेम श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रवल तरंगे उठी कि जैसे प्रतीत हुआ कि खोज पुरी हो गर्इ। आपने सतगुरु के चरण कमलों पर माथा टेकते हुए अपने आपको गुरु के आगे समर्पित कर दिया और अपनी भावना इस प्रकार प्रकट किया:-
ऐसा दृष्टि न आवर्इ जहाँ नवावैं माथ। सतगुरु करि चरणों लगैं शीश धरावै हाथ।।
आपके विरह के लम्बे दु:खदायक वर्षों का वर्णन सुनकर महात्मा ने आपके सीर पर अपना कृपापूर्ण हाथ रखकर संत्वना दी और याद दिलाया कि जब तुम पांच वर्ष का था। तभी मैंने आम व्क्ष के नीचे दर्शन दिया था। वृन्दावन यात्रा के दौरान एक दिन आपको पुन: सतगुरु के देह स्वरूप के दर्शन हुए। इस बार सतगुरु ने आपको भक्ति मार्ग चलाने का आदेश दिया।
इस तरह आपके सतगुरु सुकदेव जिसका जन्म शरीर रूप में द्वापर युग में हुआ था, पर शरीर छोड़ने के बावजूद कलियुग में आपने शिष्य के कल्याण के लिए समय-समय पर पुन: शरीर धारण कर आपको उपदेश एवं निर्देश देते रहे। आपने सतगुरु के प्रति समर्पण की भावना इस प्रकार प्रकट किया है।
पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार। मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरू गार।।1।।
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव। प्यार करैं औगुन हरै, चरणदास शुकदेव।।2।।
आप बिल्कूल जाति पाति एवं प्राचीन रूढ़िवादी नामकरण की परम्परा के विरोधी थे। कर्म के आधार पर नामकरण करने के पक्षधर थे, वंश के आधार पर नहीं। इसी क्रम में वंशधारी ब्रह्ममणों पर कठोर प्रहार करते हुए, ब्रह्मण शब्द को परिभाषित इस रूप में किया है:-
ब्रह्मण सोर्इ जो ब्रह्म पिछानै, बारह जाता भितर आनै।
पाँचो वस कारे झूठ न भाखै, दिया जनेऊ हृदय राखै।।
आतम विद्या पढै पढ़ावै, परमातम का ध्यान लगावै।
काम क्रोध मद लोभ न होर्इ, चरनदास कहै ब्रह्मण सोर्इ।।
एक घटना नादिर शाह के भारत पर आक्रमण से सम्बन्धित है। आपने आक्रमण से छ: महीना पहले-आक्रमण की तिथि, मुहम्मद शाह की हार, दिल्ली में होने वाला कत्लेआम का दिवस एक कागज पर लिखकर सेवक के द्वारा बादशाह तक पहुँचवाया पर भविष्यवाणी पर ध्यान नहीं दिया गया। नादिरशाह ने आपको कैद कर दिया पर आप जेल से गायब हो गये। पुन: पैरों में जंजीरे डलवा कर जेल में कैद करवाया। आप पुन: जेल से निकलकर नादिर शाह के पलंग के पास प्रकट होकर उसके सिर पर लात मारी उक्त घटना को देखकर बादशाह को आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
आपके सतगुरू सुकदेव ने 1771 र्इ. में बता दिया था कि आप केवल बारह वर्ष और इस मत्र्य लोक में रहेंगे सतगुरू ने इस भेद को गुप्त रखने का आदेश दिया था अत: विद्वानों ने भाव इस प्रकार प्रकट किया है:-
बारह बरस मै और हूँ, मृत्यु लोक के माहि फिर जहाँ र्इश्वर निकट, जग में रहना नाहि ।
65 वर्ष तीन महीने की उमर भोग कर सम्वत 1839 विक्रम में शीर्ष सप्तमी को बुधवार के दिन परम धाम जाने की आपने तैयारी कर ली। आपने चारों ओर बैठे सेवकों को हुक्म दिया कि कोर्इ मेरे निकट न रहे और सब ध्यान में बैठ, जाएँ। जब अन्तर में अनहद शब्द सुनार्इ दे ता समझ लेना कि मैं संसार का त्याग करके धुर धाम चला गया। अपने परलोक सिधारने के पूर्व सूचना देने के बावजूद आपने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त न किया। यह त्याग आपकेा परम संत की उपाधिक से विभुषित करता है।