महान कर्मवीर योद्धा, मानतावादी चिंतक सिखों के अंतिम तथा 10 वें गुरु गोविन्द सिंह जी के अवतरण का समय युग परिस्थितियों के विकट प्रकोप का प्रतीक था। संसार में धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिक कट्टरता एवं अंध विश्वास के बीच पे्रम करूणा एवं अध्यात्म का संदेश देने वाले के रूप में ही संसार में गुरु गोविन्द सिंह का नाम विख्यात है।
सिक्खों के 10 वें गुरु और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी का अवतरण 6 वें गुरु श्री तेगबहादूर जी के पुत्र के रूप में माता गुजरी के पवित्र कोख से पौष शुक्ल पक्ष 7, विक्रम सम्वत् 1623 (22.12.1666 र्इ.) को पटना बिहार में हुआ था। संतमत के आचार्य संत सद्गुरू महर्षिं संतसेवी परमहंस जी महाराज ने गुरु गोविन्द सिंह जी के सम्बन्ध में पटना के हर मंदिर में भगवान गोविन्द की तुलना गुरु गोविन्द सिंह से करते हुए कहा हैं।
भगवान श्री कृष्ण को भी गोविन्द कहते है उनका अवतार भू-भार-हरण -हित द्वापर युग में मथुरा में हुआ था और कलियुग के गुरु गोविन्द का प्रकाश इसी पटना में हुआ था। वह एक ऐसा विकराल काल था, जब विदेशियों के आक्रमण एवं अत्याचार से भारतवासी सतत्-संत्रस्त थे।
वे संतापित, पीड़ित, शोषित और बेहाल थे वे धर्म-च्युक्त होते जा रहे थे और उनकी बेबस वाणी व्यक्त रूप से सुनने को कोर्इ तैयार नहीं था। उस समय निरीह जनता की पुकार पर जगदाधार ने हमारे बीच एक महान् आत्मा का अवतार किया। क्योंकि भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से अपने अवतार के सम्बन्ध में कहा था।
अर्थात हे अर्जुन! जब-जब धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं जन्म-ग्रहण करता हूँ। साधुओं की रक्षा के लिए और दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म के पुनरूद्धार के लिए मैं युग-युग में जन्म धारण करता हूँ।
ऐसा लगता है, जैसे द्वापर के गोविन्द कलियुग में गुरु गोविन्द सिंह जी के रूप में अवतरित हुए हों; क्योंकि इतिहास साक्षी है कि द्वापर के गोविन्द ने पाँच भार्इ पाण्डवों को सखा के रूप में स्वीकार किया था और शत्रुओं से समर करने में उनकी सहायता की थी। उसी भाँति कलियुग के गुरु गोविन्द ने पाँच गुरु भार्इ का जमात बनायी और उनके सहायक बन समर क्षेत्र में शैतानों से सम्मुख समर किया। बल्कि यह अतिशयोक्ति नहीं कि द्वापर के गोविन्द ने महाभारत के मैदान में अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं किया, किन्तु कलियुग के गुरु गोविन्द जी दुष्टों के साथ खुल कर खेले। द्वापर के गोविन्द को तीर और तलवार थी, तो कलियुग के गुरु को पंच ककार (कच्छ, केश, कड़ा, कंधी और कृपाण) थे। पंच ‘ककार’ में एक तलवार भी थी और तीर धारी वीर तो थे ही। द्वापर के गोविन्द सारथी बने थे और कलियुग के गुरु गोविन्द स्वयं रथी बने। गुरु की गम्भीरता, सुजनता और सौम्यता इनमें थी; तो गोविन्द की शूरता, वीरता और पवित्रता की प्रतिमूर्ति भी ये थे। द्वापर के गोविन्द ने उभय लोक-कल्याणार्थ अनुपम ‘गीता’ का ज्ञान दिया, तो कलियुग के गुरु गोविन्द ने लोक-परलोक-सुधारार्थ निरूपम ‘श्री गुरुग्रन्थसाहब’ दिया।
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-’’तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’’ अर्थात् मेरा सतत् स्मरण करो और युद्ध भी करो। उसी तरह हमारे दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने भी सिखों को सीख दी-र्इश्वर स्मरण भी करो और जुझते भी रहो। बल्कि गुरु महाराज ने अपने को उपदेशात्मक वाणी तक सीमित नहीं रखा, उसको चरितार्थ करके दिखला दिया। गुरु गोविन्द सिंह जी क्रम-क्रम से अपने दो पुत्रों को युद्ध में भेजते है: शत्रुओं से समर करते-करते सैकड़ों सिर भुट्टे की तरह उतार कर जब वे युगल भ्राता वीरगति को प्राप्त होते हैं, तो गुरु महाराज के श्रीमुख से जोश भरी उद्घोष-वाणी निकलती है-शाबाश बेटा! शावाश!! अर्थात् धन्य है! डनके मुख वा मन पर तनिक भी मलिनता वा उदासीनता नहीं आ पायी। किन्तु जब हम दूरी ओर दृष्टिपात करते हैं, तो देखते हैं कि महाभारत के मैदान में अभिमन्यु की मृत्यु पर अर्जुन सहित सभी पाण्डव दु:खित और कातर होकर रोते है। यदि कहा जाय कि गोकुल के गोविन्दि के द्वापर में जिस गीता-ज्ञान का उपदेश दिया था, उसका शंत-प्रतिशत पालन पटना के गोविन्द-गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने कलियुग में किया, तो यह कोर्इ अतिशयोक्ति नहीं होगी।
गुरु गोविन्द सिंह जी शूर थे, वीर थे। किन्तु इन्की शुरता में क्रूरता नहीं, वरन् वीरता में धीरता और शूरता में शीलता एवं गहरी गम्भीरता थी। एक घटना है- जब आतेतायियों का अत्याचार हमारी भारतीय महिलाओं पर होने लगा, तो हमारे सिख सरदारों से यह देखा नहीं गया। ललनाओं का अपमान उनसे बदार्शत नहीं हो सका। अतएव प्रतिशोध की भावना से उत्प्रेरित होकर इन लोगों ने भी कुछ यवनों की युवतियों का अपहरण किया। जब गुरु महाराज को यह बात ज्ञात हुर्इ, तो उन्होंने तीखे स्वर में सरदारों से कहा-’अरे! इन लोगों को क्यों लाये हों? बेचारी अबलाओं का क्या अपराध?’ सिख सरदारों ने कहा-’महाराज! हमारे साथ इसी भाँति पेश आते है।’ गुरु महाराज ने कहा-’अरे! यदि वे लोग पाप करते हैं, तो क्या, हम भी पाप करें? जाओं, अभी तुंरत लोगों को इनके घर पहुँचा दो।’
गुरु महाराज की आज्ञा पाते ही सिख सरदार अविलम्ब उन महिलाओं को उनके घर पहुँचा आये। यह है गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के विशाल हृदय की एक अदभुत झाँकी। एक और दूसरी घटना सुनिये-एक बार का एक प्रसंग है कि दसवे पातशाह गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने युद्ध में गिरे सैनिकों को पानी पिलाने की एक सिक्ख सरदार को आज्ञा दी। वह सिक्ख सरदार अपने गिरे सिपाहियों के अतिरिक्त दुश्मनों के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिला देता। उसकी यह शिकायत गुरु महाराज के सामने पहुँची। गुरु महाराज ने उस सिख को बुलवाकर पूछा-’’सरदार! तुम क्या करते हो?’’ उसने हाथ जोड़कर कहा-’’जो हुजूर की आज्ञा है।’’ गुरु महाराज ने पूछा-क्या दुश्मनों के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिलाते हो?’’ सरदार ने नम्रता-भरे स्वर में कहा-’’जी हाँ, गुरुदेव।’’ गुरु महाराज ने पूछा-क्यों?’’ सरदार ने पाणिबद्ध होकर निवेदन किया-’’महाराज! जब तक हमसे लड़ता रहा, तब तक वह दुश्मन था। जब वह मैदान में गिर गया, तब दुशमन कैसे रहा?’’ गुरु महाराज ने प्रसन्न होकर गद्गद स्वर में कहा-’’वाह भार्इ! तुम्हारा विचार बड़ा पवित्र है; तुम धन्य हो! जाओ तुम ऐसा ही करो।’’
यह है गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के ज्ञान की गम्भीरता, जो रण-क्षेत्र में भी शत्रुओं के प्रति सहिष्णुता, दयालूता, उदारता और परोपकारिता को; प्रश्रय दे सके। वस्तुत: गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ‘गुरु’ ‘गोविन्द’ दोनों थे। गुरु नानक-पंथ में दस सन्त हुए, इन दसों के साथ ‘गुरु’ शब्द लगा हुआ है; ऐसा अन्यत्र नहीं दीखता । उनकी जितनी गाथा गायी जाय, थोड़ी होगी। रामकली पातशाही 10 की एक वाणी सुनिये-
‘‘रे मन इहि विधि जोग कमाउ।
सिंगी सांच अकपट कंठला, धिआन विभूति चढ़ाउ।।
ताती गहु आतम वसि कर की, भिंछा नाम अधारं।
बाजे परम तार तत हरि को, उपजै राग रसारं।।1।।
गुरु गोविन्द सिंह जी कार्तिक शुक्ल पक्ष 5 विक्रम सम्बत् 1765 (6.10.1708 र्इ.) को दरबार में गुरु ग्रन्थ साहब को सीस नवाया और आगे उसे ही गुरु मानने की आज्ञा दी।
आज्ञा भर्इ अकाल की, तभी चलायो पंथ। सब सीखन को हुकुम है, गुरु मानयहु ग्रन्थ।।
अपना अंतिम संदेश देने के बाद इन्होंने नश्वर शरीर को त्याग कर सत्तलोक गमन किया।