भारतीय संत साहित्याकाश के चमकते सितारे के रूप में विख्यात संत सुन्दर दास जी जन-जन के प्रेरणास्त्रोत बने हुए है। अध्यात्म प्रेमियों के बीच गुरु-शिष्यों का सम्बंध एक नहीं कर्इ जन्मों से जुड़ने का सबसे सुन्दर उपमा सुन्दर दास जी की जीवन गाथा ही है।
पुराने समय में चाल थी कि साधु लोग अपना वस्त्र बुनने के लिए जब काम पड़ता था सूत माँग लाया करते थे। ऐसे ही एक दिन दादूदयाल के प्रेमी चेले जग्गा जी आमिर नगर में सुत माँग रहे थे और अपनी उमंग मे यह हाँक लगाते थे ‘‘दे मार्इ ले सूत मार्इ पूत’’ जब साधू जी एक सोंकिया महाजन के घर के सामने पहुँचे जो दादूदयाल का भक्त था तो वह हाँक सुन उसकी कुँआरी कन्या सती नामिनी तमाशा समझ कर उनके सामने सूत लाकर बोली ‘‘लो बाबा जी सूत, जग्गा जी ने कहा-लो मार्इ पूत’’।
जब वह लौटकर अपने गुरु के स्थान पर आये तो उनके अन्तर्यामी महात्मा दादू जी ने कहा कि तु ठगा आया क्योंकि इस कन्या के भाग में लड़का नहीं लिखा है सो कहाँ से आवे शिवाय इसके कि तू जाकर उसके गर्भ में वास करे।
जग्गा जी उदास होकर बोले जो आज्ञा गुरुदेव परंतु चरणो से अलग नहीं रखिएगा। गुरु जी ने ढाढस दी और आज्ञा की कि उस लड़की के माता-पिता से कह आओ कि जहाँ उस का ब्याह ठहरे वर को जता दे कि जो पुत्र उत्पत्र होगा वह परम भक्त होगा परंतु 11 वर्ष की अवस्था में वैराग ले लेगा। जग्मा जी ने इस आज्ञा का तुरंत प्रतिपालन किया।
कुछ दिनों में सती का ब्याह जयपुर राज्य की पहली राजधानी दौसा नगर में वहाँ के एक महाजन शाह परमानंद ‘बूसर’ गोति खंडेलवाल बनिये के साथ हुआ। कर्इ वर्ष पीछे जग्गा जी ने शरीर त्याग कर सती जी के गर्भ वास किया और दिन पूरे होने पर उनके गर्भ से चैत्र सुदी नवमीं को दोपहर के समय सम्वत् 1653 विक्रम में जन्म हुआ था।
संत सुन्दर दास जब 6 वर्ष के थे तो उनके गुरु संत दादूदयाल सम्वत् 1653 को दौसा में पधारें । पिता ने बालक को चरणों में डाल दिया। दयाल जी उनके सिर पर हाथ धर कर बोले ‘‘यह बालक बड़ा ही सुन्दर है’’ कोर्इ कहते है कि वह ऐसा बोले कि ‘‘अरे सुंदर तू आ गया’’ अर्थात् जग्गा तूने सुंदर के शरीर में जन्म धारण कर लिया! जो कुछ हो सुन्दर नाम आपका तभी से पड़ा तभी आप दादू जी के शिष्य हुये। उनका दर्शन पाते ही सुन्दर जी की बुद्धि कुछ और ही रंग की हो गर्इ और गुरु भक्ति का अंकुर पौधसरिस होकर लहलहाने लगा, वह उसी दम गुरु के साथ हो लिये और नारायण में दादू दयाल का सम्वत् 1660 में चोला छुटने तक उनके चरणों में रहे और इतने कम समय में ही गुरु दया और पूर्व संस्कार के प्रताप से अपना काम पूरा बना लिया। संत दादू जी का परलोक होने पर उनके बडे़ बेटे और उत्तराधिकारी गरीब दास ने सब साधुओं को बुलाकर उनका बड़ा आदर-सत्कार किया परंतु र्इष्र्या वश सुन्दर दास जी का सभा में कुछ अपमान किया, उस समय सुन्दर दास जी ने उनकी शिक्षा के हेतु यह कड़ियाँ कही-
क्या दुनिया असतूत करैगी, क्या दुनिया के रूसे से ।
साहिब सेती रहो सुरखरू, अआतम बखसे ऊसे।।
क्या किरपन मूँजी की माया, नाँव न होय नपूंसे से।
कूड़ा बचन जिन्होंने भाष्या, बिल्ली मरै न मूँसे से।।
जन सुन्दर अलमस्त दिवाना, सब्द सुनाया धूंसे से ।
मानूँ तो मरजाद रहैगी, नहिं मानूं तो घूँसे।।
यह बचन सकल समाज के मन भाया। संत सुन्दर दास जी कुछ दिन साधु प्रयाग दास के साथ रहे फिर जगजीवन जी के साथ दौसा में अपने माता-पिता के घर आ गये और यहाँ रहते हुये सत्संग एवं पठन-पाठन का शुरूआत किया। फिर काशी में आकर संस्कृत की विद्या हासिल किये। काशी से लौटने के बाद आपकी ख्याति सत्संग कीर्त्तन और ध्यानाभ्यास के कारण चारों तरफ फैलने लगी। आप गुरु भार्इ रज्जब के साथ रहकर दादू दयाल जी वाणी का प्रचार करने लगे। उस समय लोग आपके चमत्कार और महिमा केा देखकर ‘मर्दे खुदा’ कहने लगे।
संत सुन्दर दास जी का चित्त अपने गुरु भार्इ प्रयाग दास जी का सम्वत् 1699 में देहान्त हो जाने पर संसार से उदास होने लगा। जिससे आप तीर्थाटन के लिये तीर्थ में घूमने लगे। संत साहित्य में आपकी रचना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। आपके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्न हैं- सुन्दर विलास, सर्वांग योग, ज्ञान-समुद्र आदि। आप अनुमानत: सम्वत् 1744 तक फतेहपुर में रहे फिर सम्वत् 1745 के पीछे रामत करते साँगनेर को पधारे। जहाँ दादूदयाल जी के प्रधान शिष्य रज्जब जी के साथ सत्संग करते व्यतीत किये।
संत सुन्दर दास जी सदा भगवान का भजन और ध्यान करते रहते थे। अंत समय रोगग्रस्त हो जाने के कारण मित्ति कार्तिक सुदी 6 वृहस्पतिवार सम्वत् 1746 को शरीर त्याग किया। अपने अंतकाल में उन्होंने बड़ा ही मार्मिक बात कहा था। वह अंत ‘समय की साखी’ के नाम से विख्यात है।
मान लिये अंत:करण, जे इंद्रिन के भोग।
सुंदर न्यारो आतमा, लागो देह को रोग।।1।।
वैद्य हमारे रामजी, औषधि हू हरि नाम।
सुंदर यहै उपाय अब, सुमरिण आठों जाम।।2।।
सुंदर संशय को नहीं, बड़ी मुहच्छव येह।
आतम परमातम मिल्यो, रहो कि बिन्सो देह ।।3।।
सात बरस सौ में घटैं इतने दिन की देह।
सुंदर आतम अमर है, देह खेइ की खेह ।।4।।
आपके मुख्य शिष्यों में टिकैत दास, श्याम दास, दामोदर दास, निर्मल दास, नारायण दास थे। आप शिष्यों को प्राय: कर्इ अनुशासन एवं प्रेम की शिक्षा देते हुये स्त्री संघ से दूर रहने का आदेश करते थे। जिस प्रकार संत सुंदर दास जी आजीवन बाल ब्रह्मचारी रहकर परमात्म भजन किय, उसी तरह अपने शिष्यों को भी जगत से उदासीन रहकर परमात्म चिंतन करने का उपदेश दिये थे।