यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभयुत्थानं धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
अर्थात् पूथ्वी पर जब जब धर्म की हानी होगी तब तब धर्म की रक्षा और साधुओं की कष्टों का निवारण हेतु र्इश्वर बार-बार पृथ्वी में अवतीर्ण होंगे। इन उक्ति के पालन के लिए एक तो स्वयं भगवान अवर्तीण होते है, या अपने ही समान किसी महान आत्मा को पृथ्वी में भेजते हैं।
जब पृथ्वी में अत्याचार बढ़ रहा था, चारों ओर धर्म के पॉव बंधे जा रहे थे, नर-नारी बाल वृद्ध सब शोष्ण के जर्जर हाल में पल रहे थे, ठीक उसी समय भगवान भारत भू पर एक महान संत को अवतीर्ण कराकर भू-लोक को क्रूरतम कमोर्ं से मुक्ति दिलायी। वे महान्तम सन्त थे मोहनदास करमचन्द गाँधी।
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को राजकोट में हुआ था। उसकी माता एक भारतीय संस्कार युक्त धार्मिक महिला थी जिसका प्रभाव महात्मा गाँधी पर पड़ा 1887 में मैट्रिक पास करने के बाद 1891 में वकालत की डिग्री लेकर लंदन से भारत आये, किंतु दक्षिण अफ्रिका के करूण पुकार और वहां मानवता के दर्दनाक पीड़ा से व्यथित देख गाँधीजी दक्षिण अफ्रिका चले गये। गाँधी जी वहां लम्बी सतयाग्रह लड़ार्इ लड़ी और उनके आगे अंग्रेज सरकार नतमस्तक हो गयी। 1914 में महात्मा गाँधी भारत आये और यही से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिशा प्रदान करने के लिए कर्मठ और योग्य राजनेता के रूप में सामने आये। अपनी जीवन में हमेशा व नये-नये प्रयोग करते रहे। 30 जनवरी, 1948 को नाथुराम गोडसे के द्वारा हिंसा का शिकार हो गये। मरते समय भी उसने र्इश्वर को नहीं भूला और मुँह में ‘राम-राम’ का संदेश था।
महात्मा गाँधी अपने विशाल व्यक्तित्व मे कर्इ आयामों को समेटे हुए थे। मूलत: धार्मिक, मानवतावादी, कर्मयोगी और अन्त: प्रेरणा के पुरूष के थे। उनमें रहस्यवाद और व्यवहारवाद का अद्भुत मिश्रण था। महात्मा गाँधी स्वयं कहते थे-वे धार्मिक पुरूष का बाना पहने हुए राजनीतिज्ञ नहीं थे, बल्कि वे एक धार्मिक पुरूष थे जिसने राजनीति में केवल इसलिए प्रवेश किया था कि उन्हें मनुष्य मात्र की गहरी चिन्ता थी।
महात्मा गाँधी सर्वधर्म समन्वय के हिमायती थे। यही कारण है कि वे इस्लाम का मतलब - शान्ति, सुरक्षा और मुक्ति बताया। कुरान की एक महत्वपूर्ण शिक्षा हैं- ‘धर्म में जोर जब्र्दस्ती नहीं होनी चाहिए। महात्मा गाँधी के प्रमुख हथियार, अहिंसक प्रतिरोध की शिक्षा र्इसा मसीह के अंतिम शब्द-भगवान, उन्हें क्षमा कीजिए, क्यों कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं, वाक्य से ग्रहण किया। यही कारण है कि उन्होनें अपने शत्रुओं को भी प्यार करने का उपदेश दिया। जैन और बौद्ध धर्म से दया का तत्व खोज निकाला । इस तरह महात्मा गाँधी के जीवन को सभी धर्मो ने समान रूप से प्रभावित किया। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी का कथन महत्वपूर्ण है- संसार के धर्मों का मेत्रीपूर्ण अध्ययन हर एक का पावन कर्त्तव्य है। मैं संसार के सभी महान धमोर्ं को अपने धर्म के समान ही सच्चा मानता हूँ।
महात्मा गाँधी बड़े ही व्यवहारिक मानव थे। वे धर्म को मनु और भृगु में नहीं देखा बल्कि मनुष्य की व्यवहारिक क्रियाकलापों में अन्वेषण किया। तत्कालिक आवश्कता क्या है? और धर्म की क्या भूमिका हो सकती है। इसी आधार पर वे धर्म को ग्रहण किया। महात्मा गाँधी के संदर्भ में यह कथन सत्य प्रतीत होती है कि- महात्मा गाँधी धर्म के अनुकूल नहीं हुए बल्कि वे धर्म को अपने अनुकूल बना लिये। गाँधी जी ने एक बार कहा था- सेवा करना तथा सबको मित्र बनाना सच्चे धर्म का सार है।
महात्मा गाँधी के र्इश्वर सम्बन्धि धारणा भी काफी विचारणीय है। गाँधी जी के लिए सत्य ही सब कुछ था, सत्य ही र्इश्वर है। गाँधी जी के ही शब्दों में :- मैं र्इश्वर को व्यक्ति नहीं मानता। मेरे लिए सत्य ही र्इश्वर है और र्इश्वरीय नियम है- र्इश्वर सत्य के अलावा और कुछ नहीं है। किन्तु गाँधी जी का विश्वास था कि पूर्ण सत्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं। इसलिए उसने कहा-हम ‘सब में सत्य होता है पर पूर्ण सत्य नहीं। अत: धर्म आत्मा के विज्ञान से सम्बन्ध रखता है। क्योंकि आत्मा का बल संसार में सबसे बड़ा बल है।
महात्मा गाँधी यद्यपि सभी धर्म में समान आस्था रखते थे किन्तु हिन्दु धर्म ऑर गीता मे विशेष आस्था थी। श्रीमदभागवत गीता के संदर्भ में उसका व्यक्तत्व था- हिन्दु धार्मिक पुस्तकों से मेरी आत्मा की भूख मिट जाती है।
गाँधी जी धर्म परिवर्त्तन के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था-धर्म परिवर्त्तन तो हृदय में होता हैं। इसका अर्थ होता है- आत्म शुद्धि और आत्म अनुभूति। मानव कल्याण के नाम पर और भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन की वे निदा करते थे। गाँधी जी ने एक बार लिखा था। ‘यदि मुझे अधिकार होता और मैं कानून बना सकता तो भौतिक लाभ के परिवर्तन को एक दम बन्द कर देता।’
गाँधीजी आजादी की लड़ार्इ में कर्इ साधनों का बेहिचक प्रयोग किए थे। उनका मूल हथियार सत्य, अहिंसा, पे्रम, दया, सत्याग्रह, असहयोग जैसे तत्व थे। अहिंसा से गाँधीजी का तात्पर्य था-संसार की किसी वस्तु की मनसा, वाचा, कर्मणा क्षति न पहुंचाना। इसका मतलब है- कठोर शब्द न बोलना, कड़वी बचत से परहेज, र्इष्र्या, घृणा, और क्रूरता से बचना। लेकिन गांधीजी का सकारात्मक अहिंसा का अर्थ सीधे र्इश्वर से था। अर्थात-अहिंसा सर्वशक्तिमान, अनन्त और परम र्इश्वर का पर्यायवाची था। सत्य ही अंतिम होने के कारण अहिंसा को गाँधीजी सत्य में सन्हित कर देते है। यही एक उदारण दिया जा सकता है। गाँधी जी 1922 में असहयोग आंदोलन की चौरी-चौरा काण्ड को वापस लेते हुए कहा कि उसने ‘हिमालय जैसी भूल’ की थी। यद्यपि सफलता उनके करीब थी।
गाँधी ने अहिंसा के कुछ साधन बताये थे, वे हैं-
आन्तरिक शुद्धि, अनशन, अभय, अपरिग्रह धैर्य। वे अहिंसा के तीन तत्व बताते थे- 1 जागृत अहिंसा 2 औचित्यपूर्ण अहिंसा 3 कायरों की अहिंसा।
गाँधीजी सबसे प्रेम रखते थे और अपने कट्टर विरोधियों की भी भूरी-भूरी प्रशंसा करते थे। वे अपने अहं की राजनीतिक गतिरोध दूर करने के लिए बारम्बार जिन्ना के पास जाकर अपनी प्रतिष्ठा खोते थे। जिन्ना के वार्ता के लिए गाँधीजी को हमेशा अपने पास दौड़ाया और खुद गाँधीजी के पास कभी नहीं गया।
गाँधीजी एक महान सन्त थे सन्तों की तरह ही आत्मा के लिए उपदेश करते थे। उसने आत्म जागृति के लिए निम्नलिखित बातों पर अमल करने की सलाह दी- 1 आत्म शुद्धि 2 अहम से मुक्ति 3 त्याग 4 भक्ति 5 ज्ञान 6 विनम्रता 7 प्रार्थना 8 मौन 9 ब्रह्मचर्य 10 व्रत 11 नियंत्रित भोजन।
गाँधी जी ने निम्नलिखित पांच बातों की प्रतिज्ञा ले रखी थी-
1 सत्य 2 अहिंसा 3 अपरिग्रह 4 चोरी न करना 5 ब्रह्मचर्य का पालन।
गाँधीजी का दर्शन चूंकि नैतिक दर्शन था अत: साधन और साध्य दोनों की पवित्रता का उपदेश देता है। गाँधी ने कहा साध्य और साधन के बीच का सम्बन्ध चोली दामन का सम्बन्ध है। और एक अपवित्रता दूसरे को भ्रष्ट कर देती है। अत: गाँधीजी ने सलाह दी की अंतिम सत्य की प्राप्ति करने के लिए उत्तम साधनों का अनुलम्बन आवश्यक है।