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परमसंत राधास्वामी जी महाराज

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हुजूर स्वामी जी महाराज - जिन्हें राधास्वामी जी के नाम से ख्याति मिली है, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत की पुण्यभूमि पर अवतरित हुए एक परम् सन्त हैं।

आपका असली नाम सेठ शिवदयाल सिंह था। आपके पिताश्री दिलवाली सिंह खत्रियों के एक प्रसिद्ध सेठ परिवारों में से जिनकी गुरु नाननदेवजी के प्रति बड़ी आस्था थी। आप के परिवार पर एक पूर्ण संत सतगुरु हुजूर तुलसी साहब की आपार कृपा थी। आपका परिवार शुरू में पंजाब का रहनेवाला था, लगभग दो सौ वर्ष पूर्व कारोबार कि सिलसिले में लाहौर से दिल्ली और बाद में वहाँ से आगरा आकर बस गया था। सन्त तुलसी साहब जब आगरा आते थे तो आपके ही घर ठहरा करते थे। उन्हीं के आशीर्वाद से 25 अगस्त 1818 र्इ. (विक्रमी संवत् 1875 भाद्र कृष्णाष्टमी) के दिन माता महामायाजी की कोख से उस रत्न ने जन्म लिया, जो बाद में सन्त स्वामी जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके दो अनुज सेठ बिन्द्रावन जी और सेठ प्रताप सिंह जी भी हुए जो आपके परम् भक्त भी थे और सदा आप की संगति का लाभ लेते रहें।

स्वामी जी महाराज को बाल्यावस्था से ही तुलसी साहब का सान्निध्य प्राप्त था। स्वामीजी आदर से तुलसी साहब को ‘‘साहिब जी’’ कहकर बुलाते थे और तुलसी साहब उनको’’ मुंशी जी’’ कहा करते थे,
क्योंकि स्वामीजी फारसी के अध्यापक रह चुके थे और उन दिनों फारसी के अध्यापक को ‘‘मुंशी साहब’’ या ‘‘मुंशीजी’’ कहा जाता था। आपकी वृत्ति बचपन से ही परमार्थ की ओर थी और आपमें नम्रता, धैर्य, दृढ़ता, प्रेम और सेवा-भाव जैसे महापुरूषों के सभी गुण दिखार्इ देते थे। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में पाठशाला जाना शुरू किया और उर्दू एवं फारसी के अलावा हिन्दी, पंजाबी, संस्कृत तथा अरबी की भी पढ़ार्इ की। विद्या प्राप्ति के पश्चात् आपने बाँदा सियासत के शासक के यहाँ कुछ समय तक सरकारी नौकरी भी की। किन्तु शीघ्र ही सरकारी नौकरी छोड़कर बल्लभगढ़ के राजा के यहाँ अध्यापक की नौकरी पकड़ ली क्योंकि इस काम में उन्हें स्वार्थ और परमार्थ दोनों साथ-साथ करने का मौका मिला।

आप एक गृहस्थ महात्मा थे। आपका विवाह फरीदाबाद के लाला भज्जतराय जी की सुपुत्री नारायणी देवी जी के साथ हुआ था जिन्हें आपने अपने आध्यात्मिक विचारों और निर्मल परमार्थी रहनी से धीरे-धीरे अपने साँचे मे ढ़ाल लिया। आपने उन्हें शब्दभेद दिया और उनके अन्तर में परमात्मा की भक्ति का सच्चा चाव पैदा कर दिया। माताजी पे्रम, दया और सेवा की ही नहीं-ज्ञान की भी प्रतिमूर्ति थीं। इन्होंने इतनी लगन से शब्द का अभ्यास किया कि शब्द में ही लीन हो गर्इ। स्वामी जी महाराज ने अपने आखिरी वचनों में फरमाया था कि किसी गृहस्थ को भजन के बारे में कुछ पूछना हो तो राधाजी से पूछे। इसका भाव यह था कि माताजी स्वामी जी महाराज के साथ अभेद हो चुकी थीं।

स्वामीजी महाराज ने छोटी आयु में ही नाम की आराधना आरम्भ कर दी थीं। युवास्था में कदम रखने तक आप पूरी तरह सुरत-शब्द की कमार्इ में जुट चुके थे। आपके कमरे के अंदर एक कोठरी थी जिसमें आप भजन किया करते थे। आपका ध्यान, अंतर में नाम से जुड़ा रहता था और आप भीतर इतना रूहानी आनंद में मग्न रहते थे कि कर्इ बार दो-दो, तीन-तीन दिनों तक बाहर नहीं निकलते थे। नाम की आराधना का यह क्रम लगभग पन्द्रह वर्षों तक जारी रहा।

आप की निर्मल रहनी और उच्च आध्यात्मिक गति की सुगन्धि चतुर्दिक फैलनी शुरूश्हो गर्इ और परमार्थी विषयों के बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले जिज्ञासु आपके पास आने शुरू हो गये। आपका सत्संग बहुत प्रभावशाली होता था। अपने सत्संग में आप आदि ग्रन्थ, कबीर साहब, तुलसी साहब आदि सन्तों की वाणी की व्याख्या किया करते थे। सत्संगियों के आग्रह पर आपने जनवरी 1861 में बसंत पंचमी के दिन से आम सत्संग जारी किया जो आपके अंतिम समय तक करीब साढ़े सत्रह साल तक जारी रहा।

आपके दिव्य सत्संग, अलौकिक व्यक्तित्व और अद्भूत उपदेश की महिमा सुनकर लोग दूर-दूर से आपके दर्शन और सत्संग हेतु आने लगे। मथुरा, वृन्दावन और अन्य धर्मस्थलों की यात्रा करने आये अनेक साधु और जिज्ञासू आपकी महिमा सुनकर आगरा आ जाते और उनपर आपके विचारों का इतना गहरा प्रभाव पड़ता कि उनमें से बहुत से आपसे उपदेश लेकर आपके शिष्य बन जाते और कर्इ सप्ताह तक वहाँ से जाने का नाम ही नहीं लेते। सत्संग में आये लोग आप के दर्शन करते हुए न अधाते और जो कोर्इ आपके पास आकर बैठ जाता। उसका वहाँ से उठकर जाने को जी न करता। कर्इ बार पाँच-पाँच, छ:-छ:, घंटे तक सत्संग का प्रवाह जारी रहता। आपकी उपस्थिति में बैठे लोगों के लिए समय जैसे रूक ही जाता। उनको यह भी पता न रहता कि कब आये और कब जाना है। आपके परिवार के सभी जीव आपकेा गुरुभाव से देखते थे। आपके प्रेमी शिष्यों में से राय साहिब सालिगराम जी, बाबा गरीब दास जी और बाबा जैमल सिंह जी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। स्वामीजी महाराज सरल और आम बोलचाल की भाषा में संतमत के उच्च विचारों को प्रकट किया। उन्होंने सबसे ऊँचे रूहानी मंडल सतलोक का वर्णन ऐसे सरल ढंग से किया कि अनपढ़ पुरूष और स्त्रियाँ भी इसको भली-भाँति समझ सकते है। आप ने ‘‘सार वचन छन्द-बन्द’’ की रचना की और आपके सत्संगों में से एकत्रित किये गये वचनों पर आधारित एक अन्य पुस्तक ‘‘सार वचन वार्तिक’’ भी तैयार की गर्इ। आपने अपनी वाणी में परमार्थ के अलग-अलग अंगों पर कर्इ पहलुओं या पक्षों से प्रकाश डाला। आपने आत्मा - परमात्मा के आपसी संबंध, संसार की रचना और उसका पालन, परमात्मा से मिलने के साधन और मार्ग, मनुष्य जन्म के मूल उद्देश्य तथा मन, माया, काल आदि अनेक विषयों पर भी वाणी रची है। आध्यात्मिकता के अलग-अलग अंगों के संबंध में आपके विचार दूसरे पूर्ण संतों के विचारों से पूरी तरह मेल खाते हैं। पर इन विषयों को प्रस्तुत करने का आपका ढंग निजी और निराला था। आपने ‘‘पूर्ण गुरु’’ एवं ‘‘वक्त-गुरु’’ के सिद्धान्त को भी बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।

स्वामी जी महाराज ने तो अल्पायु में ही परमार्थ की कमार्इ शुरू कर दी थी और लगभग चालीस वर्ष तक सत्य का प्रचार करते रहे। आपने 1876 से ही अपने धुर-धाम जाने के बारे में संकेत देने शुरू कर दिये थे। सन 1878 में शरीर छोडने के पन्द्रह दिन पूर्व आपने स्पष्ट कह दिया था कि पन्द्रह दिन बाद आपको संसार से कूच कर जाना है। अपने अंतिम समय में आपने फरमाया कि कलियुग में और कोर्इ करनी नहीं बनेगी, केवल सतगुरु के स्वरूप के ध्यान और नाम की कमार्इ से ही लाभ होगा।

पूर्ण संतों में परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी रहती है। वे स्वयं परमेश्वर की भक्ति द्वारा जन्म-मरण के बंधन तोड़ देते है और दूसरों को भी परमात्मा की भक्ति में लगाकर उन्हें पार उतार देते है। हुजूर स्वामीजी महाराज ने भी नि:स्वार्थ भाव से जीवनभर जीवों की अपार सेवा की। आपने अपनी दया-मेहर का बल बख्श कर भव सागर में गोते खा रहे निर्बल जीवों का उद्धार किया।

आप उस समय संसार में आये, जब लोक मध्यकाल में हुए संत कबीर, संत रविदास, गुरु नानकदेव, दादू साहब, पलटू साहब आदि के सच्चे रूहानी उपदेश को भूलकर अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे थे। आपने नये सिरे से लोगो को अनेक प्रकार के कर्म काण्ड के भ्रम जाल से मुक्त कराया और चारों ओर शुद्ध आध्यात्मिकता का प्रकाश फैलाने का कार्य आरम्भ किया। आपके सत्संगियों में अनेक ऐसे जीव थे जो पहले त्यागी बनकर, जंगलो-पहाड़ों में भटकते फिर रहे थे।

अनेक ऐसे जीव थे जो हठ-कर्मो और बाहिर्मुखी क्रियाओं धौति, वस्ती, नेती आदि में उलझे हुए थे। आपकी शरण में आकर उनको उस अन्तर्मुख सहज - मार्ग का ज्ञान हो गया जिसमें जीव घर-गृहस्थी के सारे कर्त्तव्य पूरे करता हुआ धर्म, जाति और पहनावे के किसी भेद के बिना, सुरत को अंतर में शब्द से जोड़कर सहज ही भवसागर से पार हो जाता है।

आपने सुरत - शब्द की कमार्इ के अन्तरमार्ग को फिर से जाग्रत किया और मानवता को बहिर्मुखी उपासना की भूल-भुलैया से निकालकर निर्मल परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर किया। आपकी दया-मेहर से संसार में फिर से निर्मल रूहानियत का प्रवाह जारी हो गया, जिससे आज भी हजारों-लाखों जिज्ञासु एवं श्रद्धालु भक्त लाभ उठा रहे है। आप अपनी वाणी के रूप में हमारे लिए परमार्थी ज्ञान का अकूत भंडार छोड़ गये है। इस वाणी के आधार पर आपके अमर, अनादि उपदेश को सही अर्थो मे समझने का प्रयत्न करना आपकी याद ताजा करना और आपके प्रति श्रद्धा प्रकट करने का सर्वोत्तम साधन है।
विश्व-स्तरीय संतमत सत्संग समिति (रजि.)