युग नायक संत गुरूनानक देव के जीवन पर प्रकाश डालना मानो दिनकर को दीपक दिखाना है । जैसे मार्तण्ड स्वयं प्रकाशमान होकर सबको प्रकाशित करता है, उसी तरह गुरूनानक देव जी महाराज प्रकाशमान थे और उन्होंने अपने अलौकिक ज्ञान एवं अप्रतिम प्रतिभा से जगत को प्रकाशित किया।
उनके अवतीर्ण होने का काल ऐसा था, जब देश की धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी अवस्थाएँ विश्रृखलित होकर दयनीय हो रही थी। अपेक्षा थी एक ऐसी महान आत्मा की अवतरण की, जिनकी चरण मे जा, मार्गदर्शन पा, मानव स्वधर्म, स्वजन और स्वजीवन का संरक्षण कर पातें।
यह स्वत: सिद्ध है कि बिना आधार के सुधार नहीं और बिना सुधार के उद्धार कहाँ? अतएव करतार ने अपार कृपा कर अपनी एक विशेष कला का अवतार किया, जिन्होंने भविष्य में करतार नगर का निर्माण कराया। वे ही थे युगनायक गुरूनानक देव जी महाराज। ये पंजाब प्रांत के रायपुर, तलवंडी गाँव में करीब 6 सौ वर्ष पूर्व दिनांक 15 अपै्रल सन् 1469 र्इ. में शनिवार के दिन प्रकट हुये थे ।
उनकी माता का नाम तृप्ता जी और पिता का नाम (कल्याण दास) कालू मेहता जी था। गुरूनानक देव जी के जन्मजात जोगी होने के कारण इनकी मेधा शक्ति अद्वितीय थी। फलत: इन्होंने अल्पवयस में ही अरबी, फारसी, पंजाबी, भारती, संस्कृत आदि भाषाओं पर आधिपत्य प्राप्त कर लिया। इनका मन संसार के कामों में नहीं लगता था। ये किसी अदृश्य शक्ति की ओर खिंचे-खिंचे से लगते थे। जगतिक उदासीनता देख इनके पिताजी ने इनको जग-जाल में बाँधने के लिये एक सुंदरी कन्या सुलखनी जी के साथ इनका पाणिग्रहण-कार्य सम्पन्न कराया। काल पाकर आप के दो लाल हुये। फिर भी आप राजा जनक की भाँति विदेह बने रहे। बड़े पुत्र बाबा श्री चंद जी परम विरक्त पूर्ण ज्ञानी थे, जो उदासी मत के पर्वत्तक हुए और छोटे पुत्र बाबा लक्ष्मी चंद जी गृहस्थ रहकर भी योगी थे।
दिन-प्रति-दिन गुरूनानक देव जी की जग से विरक्ति और जगदीश से अनुरक्ति बढ़ती गर्इ। परिणाम स्वरूप आपने स्वगृह का परित्याग कर साधना में प्राप्त अपने अनुभव ज्ञान को जन-साधारण तक पहुँचाने की भरपूर चेष्टा की। लोक कल्याणार्थ- विश्व उपकार की भावना से अनुप्रेरित होकर आपने अपने ऊपर अनेक कष्टों को झेलते हुए विभिन्न देशों और प्रदेशों का पर्यटन किया, जिनमें लंका, मक्का, बगदाद, मिस्र, रोम, र्इरान, मुल्तान, बिहार, बंगाल, आसाम, उड़ीसा, अयोध्या, काशी, प्रयाग, हरिद्वार, प्रवृति स्थान उल्लेखनीय है।
आप ने एक र्इश्वर का ज्ञान दिया और उसकी प्राप्ति का साधन अपने शरीर को बताया साथ ही र्इश्वर स्वरूप को बताते हुए आप ने कहा कि वह प्रभु अलख है, अपार है, अगम है, अगोचर तथा वह काल और कर्म के परे है। र्इश्वर के नाम के लिये आपने एक महांमत्र दिया है और वह है ‘1 ऊँ सतिनाम करता पुरख निरभउ निरवैर अकालमूरति अजूनि सैभं गुरुप्रसादि’ जिज्ञासुओं को सम्बोधित कर आपने बताया कि र्इश्वर की खोज के लिये जंगल जाने की जरूरत नहीं उसकी खोज अपने अंदर करो क्योंकि वह प्रभु सदा सर्वदा अपने अंग संग मौजूद है। जैसे पुष्प में सुरभि और दर्पण में परछार्इ होती है उसी प्रकार परमात्मा अपने अंदर व्याप्त है। प्रभु बाह्याभ्यन्तर सर्वत्र निरन्तर किंतु अपने आपा के पहचान के बिना उसका प्रत्यक्षकरण नहीं होता। जब तक आपा यानि आत्मा की पहचान नहीं होती, तब तक भ्रम की कार्इ नहीं मिटती और न परमात्म स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इन्द्रियों के द्वारा अपने शरीर की पहचान होती है। आपा और आत्मा की नहीं। जब तक हम तीन अवस्थाओं जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति में रहेंगे, तब तक अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं होगा। और न उससे सम्बन्धित परमात्मा का ज्ञान होगा। संतों ने कहा-इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर यानि चौथी अवस्था - तुरीय में जाओ, तो अपनी आपा का ज्ञान होगा तब परमात्मा का भी ज्ञान होगा।
संत गुरुनानक देव जी कहते है -’’आतमा परातमा एको करैं। अंतरि की दुविधा अंतरि मरै। गुर प्रसादी पाइआ जार्इ। हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ।।’’ अर्थात् सत्स्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष पाने का ज्ञान संत सद्गुरु से ही मिल सकता है। बिना संत सद्गुरू के र्इश्वर का परोक्ष ज्ञान भी नहीं हो सकता, अपरोक्ष ज्ञान तो दुरात्सुदूरे है। इसलिये उनकी बाणी में पाते हैं।
‘‘बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होर्इ। बिनु सतिगुर भेटे मुक्ति न कोर्इ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ। बिनु सतिगुर भेटे महादु:खु पाइ।।
बिनु सतिगुर भेटे महागरबि गुबारि। नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारी।।’’
किंतु स्मरण रहे, गुरु कैसा होना चाहिए? इस सम्बन्ध में चेतावनी देते हुए क्या कहा है-सुनिये ‘‘घरि महि घरू देखाड़ देह, सो सतगुरु परखु सुजाणु। पंच सबदु धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु निसाणु।
ये ‘‘घर-में-घर’’ कौन से है? सांकेतिक शब्द घर का प्रयोग किसके लिये किया गया है? इस संकेत की परिपुष्टि के लिये संत कबीर की बाणी श्रवण किजिए।
‘‘कहा मँडावै मेड़िया, लम्बी भीत ओसार। घर तो साढे़ तीन हाथ, घना तो पौने चार।’’
अर्थात् सन्त कबीर साहब की भाँति गुरुनानक देव ने भी शरीर को घर कहा है, ऐसा प्रतीत होता है। ये शरीर-रूपी घर कितने है, इसका स्पष्टीकरण सन्त दादू दयाल जी की वाणी से जानिये । वे पाँच प्रकार के घरों का वर्णन करते है, यथा-
‘‘नीके राम कहतु है बपुरा । घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा।।’’
अब इन तन-रूपी पाँचों घरों के नाम यदि अभिज्ञता प्राप्त करना चाहें तो, महर्षिं मेंहीं परमहंस जी महाराज के वचन का मनन कीजिये। वे कहते है-
‘‘स्थूल सूक्ष्म कारण महाकरण कैवल्यहु के पार। तन में पिल पाँचों तन पारा जा पाओ प्रभु सार।।’’
तात्पर्य यह कि इन पाँचो शरीरों का अतिक्रमण करो, तो अभ्यन्तर में आत्माराम को पाओगे। किन्तु इसके लिए घर-वार वा कारबार छोडने की दरकार नही । गुरु नानक देव जी महाराज स्वयं इसके प्रतीक थे। वे अपने को उस साँचे में ढाले हुए थे, जिसकी सीख उन्होंने अन्यों को दी। उनकी शिक्षा थी घर-गृहस्थी में रहो। किन्तु जल-कमलवत् निर्लिप्त रहो। साथ ही पवित्र जीवन बिताओ और सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करो।
आपके विचार में र्इश्वर-भक्ति के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे राजा हो वा योगी, तपी हों या भोगी।
‘‘राज महि राज योग महि योगी। तप में तपीसुर गृहस्थ महि भोगी।।
ध्याय ध्याय भक्त: सुख पाया। नानक तिसु पुरख का किन अन्त न पाया।।’’
आपकी दृष्टि में जाति-पाँति, ऊँच-नीच व वैदिक-अवैदिक का भेद-भाव नहीं था। यही हेतु है कि आज भी आपकी व उद्घोष-वाणी चतुर्दिक मुखरित हो रही है-
‘‘चहु बरना को दे उपदेश । तिसु पण्डित को सदा अदेश।।’’
आध्यात्किता को सर्वोच्चता तथा देश-देश को सुसंगठित तथा उसकी सर्वागीण उन्नति करना गुरु नानक देव जी का उधेश्य था। इस हेतु जैसे जैसे शरीर के रोगाक्रान्त होने पर उससे मुक्ति दिलाने और शरीर को पूर्ण स्वस्थ एवं सबल बनाये रखने के लिये सफल चिकित्सक औषधि की गोली या इंजेक्शन देते है और आवश्यकता पड़ने पर अंग-विशेष का आपरेशन भी करते हैं, उसी भाँति गुरू नानक देव जी महाराज ने भव-रुज के भेषज में गोली की जगह मधुर बोली, इंजेक्शन की जगह तीखा प्रवचन और बीमार अंगो को काट कर निकालने के लिए सिख-सम्प्रदाय का निमार्ण किया।
युगनायक गुरुनानक देव जी महाराज अपनी गद्दी उत्तराधिकारी शिष्य लहना को अंगद देव बनाते हुए सौंप दिए एवं 5 सितम्बर 1530 र्इ शनिवार के रोज इस संसार से महाप्रस्थान कर गये।